भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खीजत जात माखन खात / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:14, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग रामकली खीजत जात माखन खात ।<br> अरुन लोचन, भ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग रामकली


खीजत जात माखन खात ।
अरुन लोचन, भौंह टेढ़ी, बार-बार जँभात ॥
कबहुँ रुनझुन चलत घुटुरुनि, धूरि धूसर गात ।
कबहुँ झुकि कै अलक खैँचत, नैन जल भरि जात ॥
कबहुँ तोतरे बोल बोलत, कबहुँ बोलत तात ।
सूर हरि की निरखि सोभा, निमिष तजत न मात ॥

मोहन माखन काते हुए खीझते जा रहे हैं । नेत्र लाल हो रहे हैं, भौंहे तिरछी हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं । कभी (नूपुरोंको) रुनझुन करते घुटनोंसे चलते हैं, शरीर धूलिसे धूसर हो रहा है, कभी झुककर अपनी अलकें खींचते हैं, जिससे नेत्रोंमें आँसू भर आते हैं, कभी तोतली वाणीसे कुछ कहने लगते हैं, कभी बाबाको बुलाते हैं । सूरदासजीकहतेहैं कि श्रीहरिकी यह शोभा देखकर माता पलकें भी नहीं डालतीं । (अपलक देख रही हैं) (अपलक देख रही हैं ।)