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शव / संजय अलंग

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शव पिता का हो तो
याद का मात्र जलता दिया ही नहीं रह जाता
माँ का हो तो पूरा घर गमगीन रहता है
पर दुर्गन्ध, डर अभी भी कहीं बिलबिलाते हों तो
कहते हैं बम फटा था

और शव तो कब के हटा लिए गए
उसमें न तो पिता है, न माँ
अरे हाँ उसमें तो भाई, बहन, पति, पत्नी, प्रिय कोई नहीं है
शव तो फेंके भी जा सकते हैं, बिना बिलबिलाए भी

 
पुलिस समझ नहीं पा रही कि,
सपनों और इच्छाओं को कहाँ फेंके
अब तो दंतेवाड़ा, बेरूत, बग़दाद, गोधरा
सभी जग़ह गड़ढे पटे पड़े हैं
स्वच्छता का दामोदार भी सरकार पर है
फिर वो विश्व व्यव्स्था की हो या स्थानीय
नालियाँ कीचड़ और प्लास्टिक से अटी पड़ी हैं
हाँ उसमें शव भी हैं, कहीं
पर वे तो गड़ढ़े पाटने के काम आए थे
गड़ढ़े तो कब के भरावा दिए गए
अब झूठ कहीं नहीं हैं
न ही केंचुल
अब शव कहीं दिखते नहीं
इच्छाओं को ताबूत में रैप किया जा रहा है
जम्हूरियत, नौकरी, पेंशन, धन्धे, डालर, मुआवजा, बदलाव
रैपर पर पता नहीं क्या-क्या प्रिंट है
शवों को तो हटना ही होगा