भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काली बिल्ली ढूंढ रही/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

Kavita Kosh से
Sheelendra (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:55, 5 मार्च 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काली बिल्ली ढूँढ रही है, घर-घर आज शिकार ।
उसे नहीं इससे मतलब है कौन कहाँ लाचार ।

घिरे अँधेरे में भी इसकी
चमक रही हैं आँखें,
जैसे रातों में दिखती हैं
तपती हुई सलाखें,

धीरे-धीरे करती फिरती है नाख़ूनी वार ।
कोई दामन बचा न इससे, है कितनी ख़ूँखार ।

दीख रही इसकी आँखों में
सम्मोहन की ज्वाला,
जिसकी ओर निहारा, उसको
अपने वश कर डाला,

चुपके चुपके घूम रही है सरेआम बाज़ार ।
बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा दरबार ।

घूम रही अपने पाँवों में
गूंगे घुँघरू बाँधे,
बड़े बड़ों के दामन अपने
पंजों के बल साधे,

बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार,
कितने हैं मज़बूत इरादे कितने हैं दमदार ।