त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई-घमरकौ होइ / सूरदास
राग-बिलावल
त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई-घमरकौ होइ (री) ।
तैसियै किंकिनि-धुनि पग-नूपुर, सहज मिले सुर दोइ (री)॥
कंचन कौ कठुला मनि-मोतिनि, बिच बघनहँ रह्यौ पोइ (री)।
देखत बनै, कहत नहिं आवै, उपमा कौं नहिं कोइ (री)॥
निरखि-निरखि मुख नंद-सुवन कौ, सुर-नर आनँद होइ (री)।
सूर भवन कौ तिमिर नसायौ, बलि गइ जननि जसोइ (री)॥
भावार्थ :-- जैसे-जैसे मथानीकी घरघराहट होती है, वैसे-वैसे ही मोहन नाच रहे हैं ।वैसे ही (कटिकी) किंकिणी और चरणों के नूपुर दोनोंके बजनेका स्वर स्वाभाविक रूपसेमिल गया है । (गलेमें) सोनेका कठला है, मणि और मोतियोंकी मालाके बीचमें बघनखा पिरोया है । यह छटा तो देखते ही बनती है, इसका वर्णन नहीं हो सकता; जिसके साथ इसकी उपमा दी जा सके, ऐसी कोई वस्तु नहीं है । सूरदासजी कहते हैं - (अपनी अंगकान्तिसे श्यामसुन्दर) भवनके अन्धकार को नष्ट कर चुके हैं (उन्होंने तीनों लोकोंके तमसको नष्ट कर दिया है) मैया यशोदा उनपर बलिहारी जाती हैं ।