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लौटे बचपन! / अवनीश सिंह चौहान

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अब न अजुध्या
मन में बसती
अब न बगाइच
वाला वह मन
कंकरीट के
मकड़जाल ने
फांस लिया है
सादा जीवन

कभी पकड़ना
अपनी छाया
कभी छाँह से
डर कर रहना
कभी चाँद-
तारों को चाहें
कभी धूप के
मोती चुनना

रस था
आमों के झगड़ों में
'कुट्टी' में भी
था अपनापन

छोटेपन के
बाल-इशारे
माँ समझे या समझे
बापू
जिनकी ओली ही
लगती थी
सबसे ऊंचा
सुन्दर टापू

गाँव किनारे
जखई बाबा
का वह चौपड़
था सिंहासन

धुक-धुक-धुक-धुक
जी करता है
कितने फंदे,
कितने धंधे
चढी जवानी
देखे सपना
बोझिल
झुके हुए हैं कंधे

मन ही मन
यह चाहूँ मुझमें
लौटे फिर से
मेरा बचपन