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अटल है खण्डहर / मदन गोपाल लढ़ा
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पहली बार
जब मैंने
रचा था एक घर
मैं महज पाँच वर्ष का था।
गीली मिट्टी को
नन्हे हाथों से
पगथली के चारों तरफ थापकर
कितने जतन से
किया था मैंने
वह अद्भुत सृजन
बहुत खुश हुआ था मैं।
घरौंदा होगा तुम्हारे लिए
मेरे लिए तो वह
किसी महल से कम नहीं था
जिसके खण्डहर
आज भी अटल खड़े हैं
मेरी स्मृतियों के आँगन में।
वक्त के पहिए के साथ
कितना घूमा हूँ मैं
कितना तड़पा हूँ
पर एक घर तो दूर
घरौंदा भी नहीं रच पाया।