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बंगाली बाबा (3) / पुष्पेन्द्र फाल्गुन
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कनपटी पर
चिपके बालों से टपकता ठंडा पानी
हाफ पैंट के भीतर सुरसुरी पैदा करता है
और मैं बाएं हथेली में काजल से बनाए गए गोल परदे पर
हर बार गंगा को देखने से वंचित रह जाता हूँ
बाबा ताकीद करते हैं पिता से
लड़का चंचल है संभालो इसे
इसके पहले की देर हो
पिताजी का एक झन्नाटेदार तमाचा
पता नहीं कैसे सुखा देता है मेरे कनपटी पर का पानी
अगली सुबह
पगुराती गंगा के सामने खड़ा कर मुझे
अम्मा मेरे शरीर पर फिराती हैं बंद मुट्ठी
आख़िरी फेरे के बाद वह खोलती हैं
अपना हाथ बाबा के सामने
बाबा
अम्मा की मुट्ठी से उठाते हैं सिर्फ पांच का नोट
और चिल्लर तमाम