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बंगाली बाबा (4) / पुष्पेन्द्र फाल्गुन

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बाबा को घर पहुंचाते वक़्त
मैं जान जाता हूँ कि
उनके घर में हैं दो स्त्रियाँ
उनकी बहू और एक बड़ी होती बेटी
उस रात
सारे सपनों में चुभती रही
बाबा के बेटी की अदेखी आँखें

बेटी पर लोटते यौवन से चिंतित बाबा
घर के सामने स्थित सिद्ध चौतरे पर
जमाते हैं नौ दिनी मनोकामना सिद्धि डेरा
चौबीस साल के थे तब से
बाबा की सिद्ध हैं माँ काली
चौरासी साल की पकी उम्र में बाबा ने
भले न देखी हो अब तक माँ काली
लेकिन उनका दृढ़ विश्वास है
कि काली उनकी जोगनी से बीस नहीं
अलग नहीं

सिद्ध काली के दम पर
बाबा ढूंढ लाते हैं
लोगों की गुमी गाय, बकरी, मुर्गी
ठीक कर देते हैं
पहलवानों का शीघ्रपतन और स्वप्नदोष
कई कम्युनिस्टों को बाबा
पहना आये हैं रंग-बिरंगी अंगूठी
इसी सिद्ध काली के दम

बाबा का लड़का रोज़ कहीं जाता है
लेकिन लौटते वक़्त कमाई नहीं लाता है
बहू का दिन मोहल्ले के दिलफेंक मजनुयों के बीच कट जाता है
बाबा पका लेते हैं चूल्हे पर दोनों जून खाना
कहते हैं जोगनी से क्या मदद लेना
इस बेचारी को तो करना ही है जिंदगी भर

बाबा के काँधे पर लटकती मूंज
तब उनके अंगूठों में फंस जाती है
जब जोगनी उन्हें देती है उलाहना
भात जलाने
और अपने लिए वर नहीं खोज पाने के लिए

बाबा जोगनी को दस बरस पहले
कुछ नशेड़ियों से मुक्त करा लाये थे
सिद्ध काली के दम पर नहीं
सिद्ध काली के डर से