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(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै / सूरदास

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राग धनाशी

(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि न कीजै ।
मधु-मेवा-पकवान-मिठाई जोइ भावै सोइ लीजै ॥
सद माखन घृत दह्यौ सजायौ, अरु मीठौ पय पीजै ।
पा लागौं हठ अधिक करौ जनि, अति रिस तैं तन छीजै ॥
आन बतावति, आन दिखावति, बालक तौ न पतीजै ।
खसि-खसि परत कान्ह कनियाँ तैं, सुसुकि-सुसुकि मन खीजै ॥
जल -पुटि आनि धर्‌यौ आँगन मैं, मोहन नैकु तौ लीजै ।
सूर स्याम हठी चंदहि माँगै, सु तौ कहाँ तैं दीजै ॥


भावार्थ ;-- `(मेरे अच्छे) लाल ! ऐसी हठ नहीं करनी चाहिये । मधु, मेवा, पकवान तथा मिठाइयों में तुम्हें जो अच्छा लगे, वह ले लो । तुरंत का निकाला मक्खन है, सजाव (भली प्रकार जमा) दही है, घी है, (इन्हें लो) और मीठा दूध पीओ । मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, अब अधिक हठ मत करो; क्रोध करने से शरीर दुर्बल होता है ।' (यह कहकर माता)कुछ दूसरी बातें सुनाती है, कुछ अन्य वस्तुएँ दिखाती है, फिर भी उनका बालक उनकी बात का विश्वास नहीं करता (वह मान बैठा है कि मैया चन्द्रमा दे सकती है पर देती नहीं है)कन्हैया गोद से (मचलकर) बार-बार खिसका पड़ता है, सिसकारी मार-मारकर मन-ही-मन खीझ रहा है। तब माता ने जल से भरा बर्तन लाकर आँगन में रखा और बोलीं--`मोहन लो! इसे तनिक अब (तुम स्वयं) पकड़ो तो।' सूरदास जी कहते हैं कि श्याम तो हठपूर्वक चन्द्रमा को माँग रहा है; भला, उसे कोई कहाँ से दे सकता है ।