पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ / सूरदास
राग-धनाश्री
पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ ।
हौं लागी गृह-काज-रसोई , जसुमति बिनय कह्यौ ॥
आरि करत मनमोहन मेरो, अंचल आनि गह्यौ ।
ब्याकुल मथति मथनियाँ रीती, दधि भुव ढरकि रह्यौ ॥
माखन जात जानि नँदरानी, सखी सम्हारि कह्यौ ।
सूर स्याम-मुख निरखि मगन भइ, दुहुनि सँकोच सह्यौ ॥
भावार्थ :-- श्रीयशोदाजीने विनम्र होकर -`पाहुनी! तनिक दधि-मन्थन मन्थन कर दो! मैं घर के काम-काज तथा रसोई बनानेमें लगी हूँ और यह मोहन मुझसे मचल रहा है, इसने आक मेरा अञ्चल पकड़ लिया है ।' (किंतु श्यामकी शोभापर मुग्ध वह पाहुनी) आकुलतापूर्वक खाली मटके में हीमन्थन कर रही है, दही तो (मटका लुढ़कनेसे) पृथ्वीपर बहा जाता है ।श्रीनन्दरानीने मक्खन पृथ्वी पर जाता समझकर (देखकर) सखी से उसे सँभालनेके लिए कहा । सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दरका मुख देखकर वह (पाहुनी)मग्न हो गयी, उसने चुपचाप दोनों (यशोदाजीका और दही गिरनेका) संकोच सहन कर लिया ।