बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु / सूरदास
बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु ।
अब की बार मेरे कुँवर कन्हैया, नंदहि नाच दिखावहु ॥
तारी देहु आपने कर की, परम प्रीति उपजावहु ।
आन जंतु धुनि सुनि कत डरपत, मो भुज कंठ लगावहु ॥
जनि संका जिय करौ लाल मेरे, काहे कौं भरमावहु ।
बाँह उचाइ काल्हि की नाईं धौरी धेनु बुलावहु ॥
नाचहु नैकु, जाऊँ बलि तेरी, मेरी साध पुरावहु ।
भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) `मेरे कुँवर कन्हाई! मैं बार-बार बलिहारी जाती हूँमीठे स्वरसे कुछ गाओ तो। अबकी बार नाचकर अपने बाबाको (अपना नृत्य) दिखादो ।अपने हाथसे ही ताली बजाओ, इस प्रकार मेरे हृदयमें परम प्रेम उत्पन्न करो । तुम किसीदूसरे जीवका शब्द सुनकर डर क्यों रहे हो, अपनी भुजाएँ मेरे गलेमें डाल दो । (मेरीगोदमें आ जाओ ।) मेरे लाल! अपने मनमें कोई शंका मत करो! क्यों संदेहमें पड़ते हो (भयका कोई कारण नहीं है) । कलकी भाँति भुजाओंको उठाकर अपनी `धौरी' गैयाको बुलाओ ।मैं तुम्हारी बलिहारी जाऊँ, तनिक नाचो और अपनी मैयाकी इच्छा पूरी करदो । रत्नजटितकरधनी और चरणोंके नूपुरको अपनी मौजसे (नाचते हुए) बजाओ । (देखो) स्वर्णके खम्भेमें एक शिशुका प्रतिबिंब है, उसे मक्खन खिला दो ।' सूरदासजी कहते हैं, श्यामसुन्दर ! मेरे हृदयसे आप तनिक भी कहीं टल जायँ, यह मुझे जरा भी अच्छा न लगे ।रतन-जटित किंकिनि पग-नूपुर, अपने रंग बजावहु ॥
कनक-खंभ प्रतिबिंबित सिसु इक, लवनी ताहि खवावहु ।
सूर स्याम मेरे उर तैं कहुँ टारे नैंकु न भावहु ॥