भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं किसान का बेटा / प्रभात

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:48, 8 अप्रैल 2012 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मैं किसान का बेटा
मेरा सारा बदन
धनिए के टाट पर सोने से अकड़ा-ऐंठा

इस वन के बबूलों में सोई
चिडियाओं की चहचहाटों ने
मेरी आँखों पर पड़ी पलकों को हिलाया
मुझे जगाया

जाग गया हूँ
निर्जन में झाँक रहा हूँ
हवा गा रही है
मैं भी गा रहा हूँ
मीठा लग रहा है
मैंने देखा थोड़ा-सा अँधेरा
वह किस तरह ढहा-गिरा-झरा
और अब
ये अँधेरे की आख़िरी पर्त गिर रही है

और वह दिखा पूरब
बादलों के मचान से वह सूर्य उगा
काम करने की लगन लाल उर्जा से भरा।