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हमसफ़र / प्रभात

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मेरा कोई मुसलमान दोस्त नहीं है
मेरे पिता का एक था

मैं अब गाँव में रहता नहीं
शहर में वहाँ रहता हूँ
जहाँ मुसलमान नहीं रहते
अब मेरे पास बची हैं स्मृतियाँ

मेरे बाबा के कई मुसलमान दोस्त थे
करीमा सांईं, मुनीरा सांईं
अशरफ़ चचा, चाची सईदन
बन्नो, रईला

सुदूर बचपन की स्मृतियाँ हैं ये
हमारे घर आना-जाना
उठना-बैठना था उनका

समाज की बुनावट
कुछ ऐसी होती गई बीते दिनों
बकौल मीना कुमारी
’हमसफ़र कोई गर मिले भी कहीं
दोनों चलते रहे तन्हा-तन्हा’