भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस झोंपड़ी में / प्रभात

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:31, 8 अप्रैल 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <Poem> इस झोंप...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस झोंपड़ी में इतनी जगह शेष है कि
बीस व्यक्ति खड़े रह सकें यहाँ आकर
मगर इसके वीरान हाहाकार में
मैं किसी को आने नहीं देना चाहता
फिर भी आ ही जाता है कोई न कोई
सूखी घास सरीखी मेरी इच्छा को कुचलता हुआ
कोई भी आ जाता है कोई भी दाना ढ़ूँढ़ती चींटी
सूनी गाय भटकता कुत्ता
मुझे हिचक होती है उनसे मना करने में
यही है अनंत मामलों में मेरे चुप रहने की वजह