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प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार्‌यौ नंद / सूरदास

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राग रामकली

प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार्‌यौ नंद ।
रहि न सके अतिसय अकुलाने, बिरह निसा कैं द्वंद ॥
स्वच्छ सेज मैं तैं मुख निकसत, गयौ तिमिर मिटि मंद ।
मनु पय-निधि सुर मथत फेन फटि, दयौ दिखाई चंद ॥
धाए चतुर चकोर सूर सुनि, सब सखि -सखा सुछंद ।
रही न सुधि सरीर अरु मन की, पीवत किरनि अमंद ॥

भावार्थ :-- व्रजराज श्रीनन्द जी ने सबेरे उठकर अपने सोते हुए पुत्र का मुख (उत्तरीय हटाकर) खोला, क्योंकि वे अपने को रोक न सके; रात्रि में हो वियोग हुआ था, उसके दुःख से वे अत्यन्त छटपटा रहे थे । स्वच्छ शय्या में से मोहन का मुख खुलते ही (प्रातःकालीन) मन्द अन्धकार भी दूर हो गया । ऐसा लगा मानो देवताओं द्वारा क्षीरसमुद्र का मन्थन करते समय फेन फट जाने से चन्द्रमा दिखलायी पड़ गया । सूरदास जी कहते हैं कि (मोहन उठ गये, यह) सुनकर चतुर चकोरों के समान सब गोपियाँ और ग्वालबाल शीघ्रता से दौड़े, उस मुखचन्द्र की उज्ज्वल किरणों का पान करते हुए उन्हें अपने तन-मन की भी सुधि नहीं रही ।