पके बेर के पेड़ / नासिर अहमद सिकंदर
अपनी खिड़की से तो
इन्हें नहीं देख पायेंगे आप
फूल गमलों के रंग-बिरगे
आम, अमरूद, जामुन, नीम, पीपल,
या खुद बोई सब्जियां
बैगन, सेम, लौकी, जैसे देखते
अफसोस
अफसोस नहीं देख पायेंगे इस तरह
इस तरह आते-जाते
चलते-फिरते
उड़ती-उड़ती नजर से
इन्हें देखना है तो
अपने आस पास से
अड़ोस-पड़ोस से
यहाँ तक कि
अपने रोजमर्रा के आवाजाही रस्ते से
थोड़ी दूर
जाना होगा आपको
निर्जन में
आप देखेंग,े अन्य पेड़ांे से
कुछ अलग इनकी फितरत
तासीर
झाड़-झँगाड़
झाड़ियाँ
न मालिकाना
हक किसी का
न हिफाजत-निगरानी
न खाद-पानी
फिर भी इनकी जड़ें
इनका जीवन
पेड़ों को जैसे छूते आप
लिपटते उससे
झट चढ़ तोड़ते फल
यहाँ कुछ भी नहीं ऐसा
पत्तियाँ इतनी छोटीं
कि छाँह मुश्किल
काँटे-काँटे काया
बच्चे न डालें झूला
छोटे छोटे फल
कठोर गुठलीदार
कि संभव
न भरे
पेट आपका
पर इससे क्या ?
इसके वजूद को तो आप
मेरी कविता के इस दृश्य में देखें-
जरा सी हिलाई आपने इसकी डाल-
झर-झर-झरे
टपके
बरसे
बारिश छम-छमा-छम
बीनना फिर घंटों
बीनते-बीनते खाना
भरना जेबों में
झोलों में
बोरों में
पड़ेंगे नहीं कम
पड़ भी गये
तो अगले दिन
फिर आना
फिर मिलंेगे
पककर तैयार
ले जाना फिर
अपने घर
रखना कुछ दिन
अपने पास
बंाटना मुहल्ले में
पड़ोस में
दोस्तों में
रिश्तेदारों में
चखना स्वाद
शबरी सा
खाना
खिलाना शबरी सा
कविता में इस दृश्य के बाद
एक पारिवारिक अपील-
कभी
मन करे आपका
घंटे
दो घंटे
घूमने का
तो जाना जरूर
वहां
निर्जन में
कतारबद्ध मिलेंगे खड़े
आपके स्वागत में
बातें करना उनसे
पूछना हाल-चाल
वैसे भी
आपके आस-पास से दूर
अड़ोस-पड़ोस से जुदा
तरसते ये
बतियाने को
प्यार पाने को
जैसे
हमारे बड़े-बूढ़े
बुजुर्ग. . . उम्रदराज !