खेलन कौं हरि दूरि गयौ री / सूरदास
राग धनाश्री
खेलन कौं हरि दूरि गयौ री ।
संग-संग धावत डोलत हैं, कह धौं बहुत अबेर भयौ री ॥
पलक ओट भावत नहिं मोकौं, कहा कहौं तोहि बात ।
नंदहि तात-तात कहि बोलत, मोहि कहत है मात ॥
इतनी कहत स्याम-घन आए , ग्वाल सखा सब चीन्हे ।
दौरि जाइ उर लाइ सूर-प्रभु हरषि जसोदा लीन्हें ॥
भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) `सखी! श्याम खेलनेके लिये दूर चले गये । सखाओं के साथ पता नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ते-घूमते हैं, बहुत देर हो गयी (घरसे गये) सखी! तुमसे क्या बात कहूँ, नेत्रोंसे उनका ओझल होना ही मुझे अच्छा नहीं लगता । व्रजराज को वे `बाबा, बाबा' कहते हैं और मुझे `मैया' कहते हैं । सूरदासजी कहते हैं कि इतनेमें ही अपने परिचित ग्वाल-बाल सखाओं के साथ श्यामसुन्दर आ गये, माता यशोदाने हर्षसे दौड़करपास जाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया ।