भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेलन कौं हरि दूरि गयौ री / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:54, 2 अक्टूबर 2007 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग धनाश्री


खेलन कौं हरि दूरि गयौ री ।
संग-संग धावत डोलत हैं, कह धौं बहुत अबेर भयौ री ॥
पलक ओट भावत नहिं मोकौं, कहा कहौं तोहि बात ।
नंदहि तात-तात कहि बोलत, मोहि कहत है मात ॥
इतनी कहत स्याम-घन आए , ग्वाल सखा सब चीन्हे ।
दौरि जाइ उर लाइ सूर-प्रभु हरषि जसोदा लीन्हें ॥

भावार्थ :-- (माता कहती हैं-) `सखी! श्याम खेलने के लिये दूर चले गये । सखाओं के साथ पता नहीं कहाँ-कहाँ दौड़ते-घूमते हैं, बहुत देर हो गयी (घर से गये) सखी! तुमसे क्या बात कहूँ, नेत्रों से उनका ओझल होना ही मुझे अच्छा नहीं लगता । व्रजराज को वे `बाबा, बाबा' कहते हैं और मुझे `मैया' कहते हैं । सूरदास जी कहते हैं कि इतने में ही अपने परिचित ग्वाल-बाल सखाओं के साथ श्यामसुन्दर आ गये, माता यशोदा ने हर्ष से दौड़कर पास जाकर उन्हें हृदय से लगा लिया ।