दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे / सूरदास
राग जैतश्री
दूरि खेलन जनि जाहु लाला मेरे, बन मैं आए हाऊ !
तब हँसि बोले कान्हर, मैया, कौन पठाए हाऊ ?
अब डरपत सुनि-सुनि ये बातैं, कहत हँसत बलदाऊ ।
सप्त रसातल सेषासन रहे, तब की सुरति भुलाऊ ॥
चारि बेद ले गयौ संखासुर, जल मैं रह्यौ लुकाऊ ।
मीन-रूप धरि कै जब मार्यौ, तबहि रहे कहँ हाऊ ?
मथि समुद्र सुर-असुरनि कैं हित, मंदर जलधि धसाऊ ।
कमठ -रूप धरि धर्यौ पीठि पर, तहाँ न देखे हाऊ !
जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैं अति गरबाऊ ।
धरि बाराह-रूप सो मार्यौ, लै छिति दंत अगाऊ ॥
बिकट-रूप अवतार धर्यौं जब, सो प्रहलाद बचाऊ ।
हिरनकसिप बपु नखनि बिदार्यौ, तहाँ न देखे हाऊ !
बामन-रूप धर्यौ बलि छलि कै, तीनि परग बसुधाऊ ।
स्रम जल ब्रह्म-कमंडल राख्यौ, दरसि चरन परसअऊ ॥
मार्यौ मुनि बिनहीं अपराधहि, कामधेनु लै हाऊ ।
इकइस बार निछत्र करी छिति, तहाँ न देखे हाऊ !
राम -रूप रावन जब मार्यौ, दस-सिर बीस-भुजाऊ ।
लंक जराइ छार जब कीनी, तहाँ न देखे हाऊ !
भक्त हेत अवतार धरे, सब असुरनि मारि बहाऊ ।
सूरदास प्रभु की यह लीला, निगम नेति नित गाऊ ॥
भावार्थ :--`मेरे लाल! दूर खेलने मत जाओ, वनमें हौए आये है ।'तब कन्हाई हँसकर बोले- `मैया! किसने हौओंको भेजा है ?' श्रीबलरामजी (छोटे भाईकी) ये बातें सुनकर हँसते हैं और (मन-ही-मन) कहते हैं - ` अब आप डरने लगे हैं,किंतु पृथ्वी के नीचेके सातवें लोक पातालमें शेषकी शय्यापर विराजते हैं, उस समयकी सुधि भूल गये । (प्रलयके समय) जब शंखासुर (ब्रह्माजीसे) चारों वेद ले गया और प्रलयके जलमें छिप गया, उस समय जब आपने मत्स्यावतार लेकर उसे मारा, तब हौए कहाँ थे देवता और दैत्यों केलिये आपने समुद्र-मन्थन किया और समुद्रमें डूबते मन्दराचलको कच्छपरूप धारण करके पीठपर लिये रहे, वहाँ भी हौए नहीं दिखलायी पड़े थे । जबदैत्य हिरण्याक्ष अपने मनमें अत्यन्त गर्वित होकर युद्धकी अभिलाषा करने लगा, तब आपने उसे वाराहरूप धारण करके मारा और पृथ्वीको दाँतोंके अगले भागपर उठा लिया । जब आपने भक्त प्रह्लादकी रक्षाके लिये भयंकर नृसिंहरूपमें अवतार लिया और हिरण्यकशिपुका शरीर नखोंसे फाड़ डाला, वहाँ भी तो हौए नहीं दीखे थे । वामनावतार धारण करके आपने बलिसे छल किया और पूरी पृथ्वी तीन ही पद में नाप ली; उस समय ब्रह्माजी ने आपके चरणोंका दर्शन करके उन चरणोंको धोकर चरणोंके पसीनेसे मिला चरणोदक अपनेकमण्डलु में रख लिया । जब (सहस्त्रार्जुनने) बिना अपराध ही मुनि जमदग्निको मार दिया, क्योंकि उसके द्वारा हरण की गयी कामधेनु आप लौटा लाये थे; तब आपने (उस परशुरामावतारमें) इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया; वहाँ भी होए तो नहीं दीखे थे ! जब आपने रामावतार लेकर दस मस्तक और बीस भुजावाले रावणको मारा और जब लंकाको जलाकर भस्म कर दिया, तब भी वहाँ हौए नहीं दीख पड़े थे । भक्तों की रक्षा केलिये और असुरोंको मारकर नष्ट कर देनेके लिये आपने यह अवतार लिया है, (अब यहाँयह भयका नाटक क्यों करते हैं ?) सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामीकी यह लीला है, जिसका वेद भी नित्यप्रति `नेति-नेति' कहकर (पार नहीं, पार नहीं-इसप्रकार वर्णनकरते हैं ।