भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ताँका 1-10 / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:27, 15 अप्रैल 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ }} [[Catego...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1
थके न काँधे
कभी बोझ से किसी
दूर आ गया ,
तुम्हारे आँसुओं में
डूबा पाहन -मन ।
2
पारदर्शी है-
तुम्हारा आचरण,
शुभ चिन्तन,
लोग देते ठोकरें
कितने हैं निर्मम !
3
रोया नहीं मैं
कि पथ में शूल हैं,
नहीं झिझका
कि नभ में धूल है
या है कोई चुभन ।
4
हों नैन गीले
टिका लो माथा यह
काँधे पे मेरे
प्रतिकूल है जग
मैं करूँगा सहन ।
5
उसी ताप से-
पिंघल ,मैं जी लूँगा
खारे ही सही
भर ओक पी लूँगा
करके आचमन ।
6
पास होते जो
तुम ,सब जानते
पहचानते
मैं भी रोया ,मानते
जिन्दा अपनापन ।
7
मेरे प्राण हो
अब न रोना कभी
आँसू तुम्हारे
हैं सागर पे भारी
घुमड़ते ये घन ।
8
बहा जो नीर
कह गया था पीर
मैं था अधीर
बेंध गया था मन
अधरों का कम्पन ।
9
लो पोंछ आँखें
गर्म जल में जग
जाएगा जल
ऐसा चढ़ेगा ज्वार
डोलें धरा -गगन ।
10
मोती ये तेरे
इनको खोना नहीं
यूँ रोना नहीं
लोग चाहते नहीं
खिले कोई चमन ।1