बल-मोहन दोउ करत बियारी / सूरदास
राग बिहागरौ
बल-मोहन दोउ करत बियारी ।
प्रेम सहित दोउ सुतनि जिंवावति, रोहिनि अरु जसुमति महतारी ॥
दोउ भैया मिलि खात एक सँग, रतन-जटित कंचन की थारी ।
आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झमकि रही भारी ॥
दोउ माता निरखत आलस मुख-छबि पर तन-मन डारतिं बारी ।
बार बार जमुहात सूर-प्रभु, इहि उपमा कबि कहै कहा री ॥
भावार्थ :-- बलराम और श्यामसुन्दर दोनों भाई ब्यालू कर रहे हैं । माता रोहिणीऔर मैया यशोदा प्रेमपूर्वक दोनों पुत्रको भोजन करा रही हैं । रत्नजटित सोनेकेथालमें दोनों भाई एक साथ बैठकर भोजन कर रहे हैं । दोनों आलस्यपूर्वक हाथोंसेग्रास उठाते हैं, नेत्रों में अत्यन्त गाढ़ी निद्रा छा गयी है । दोनों माताएँपुत्रों के अलसाये मुख की शोभा देख रही हैं और उसपर अपना तन-मन न्योछावर किये देती हैं । सूरदास के स्वामी बार-बार जम्हाई ले रहे हैं; भला, कोई कवि इस छटाकी उपमा किसके साथ देगा ।