भोर भयौ जागो नँदनंदन / सूरदास
भोर भयौ जागो नँदनंदन ।संग सखा ठाढ़े जग-बंदन ॥
सुरभी पय हित बच्छ पियावैं ।पंछी तरु तजि दहुँ दिसि धावैं ॥
अरुन गगन तमचुरनि पुकार्यौ ।सिथिल धनुष रति-पति गहि डार्यौ ॥
निसि निघटी रबि-रथ रुचि साजी ।चंद मलिन चकई रति-राजी ॥
कुमुदिन सकुची बारिज फूले ।गुंजत फिरत अलि-गन झूले ॥
दरसन देहु मुदित नर-नारी ।सूरज-प्रभु दिन देव मुरारी ॥
नन्दनन्दन ! सबेरा हो गया, अब जागो । हे विश्वके वन्दनीय ! तुम्हारे सब सखा द्वार पर खड़े हैं । गायें प्रेमसे बछड़ों को दूध पिला रही हैं, पक्षी पेड़ोंको छोड़कर दसों दिशाओंमें उड़ने लगे हैं । आकाशमें अरुणोदय देखकर मुर्गे बोल रहे हैं । कामदेवने हाथमें लिया धनुष डोरी उतारकर रख दिया है । रात्री व्यतीत हो गयी, भली प्रकार सजा सूर्यका रथ प्रकट हो गया । चन्द्रमा मलिन पड़ गया और चक्रवाकी अपने जोड़ेसे मिलकर प्रसन्न हो गयी । कुमुदिनियाँ कुम्हिला गयीं । कमल फूल उठे, उनपर मँडराते भौंरे गुंजार कर रहे हैं । सूरदासजी कहते हैं कि मेरे सदा के आराध्यदेव श्रीमुरारि!अब दर्शन दो, जिससे (व्रजके) स्त्री -पुरुष आनन्दित हों ।