भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बोलि लेहु हलधर भैया कौं / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:56, 26 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग कान्हरौ बोलि लेहु हलधर भैया कौं ।<br> मेरे...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग कान्हरौ


बोलि लेहु हलधर भैया कौं ।
मेरे आगैं खेल करौ कछु, सुख दीजै मैया कौ ॥
मैं मूँदौ हरि! आँखि तुम्हारी, बालक रहैं लुकाई ।
हरषि स्याम सब सखा बुलाए खेलन आँखि-मुँदाई ॥
हलधर कह्यौ आँखि को मूँदै, हरि कह्यौ मातु जसोदा ।
सूर स्याम लए जननि खिलावति, हरष सहित मन मोदा ॥

भावार्थ :-- (माताने मोहन से कहा-) अपने बड़े भाई बलरामको बुला लो । मेरे सामने ही कोई खेल खेलो और अपनी मैया को भी आनन्द दो । श्यामसुन्दर! मैं तुम्हारे नेत्र बंद करूँ, (दूसरे सब) बालक छिप जायँ ।' इससे प्रसन्न होकर आँखमिचौनी खेलने के लिये श्यामसुन्दरने सब सखाओं को बुलाया । बलरामजी ने पूछा -`आँख बंद कौन करेगा ?' श्यामसुन्दर बोले - `मैया यशोदा (मेरे) नेत्र बंद करेंगी ।' सूरदासजी कहते हैं, प्रसन्नता के साथ श्यामसुन्दर को साथ लेकर माता खेला रही हैं । उनका चित्त आनन्दितहो रहा है ।