भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम छोड़ जाती हो ...सतह पर / वोले शोयिंका

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:12, 23 अप्रैल 2012 का अवतरण (' तुम छोड़ जाती हो अपने नामालूम दबाव ,शांत पोखर की सतह ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम छोड़ जाती हो अपने नामालूम दबाव ,शांत पोखर की सतह पर नाम मात्र की उड़ान भरते हुए दुबकी श्यामल हवा-जलमयूर के पंख ,प्यार तुम्हारा मानो हवा मैं तैरते महीन जाले , अब सुनो हवा का मर्सिया यह सिखाने की बेला है,और तुम सिखा रही हो बिना पीड़ा के घुलते जाना ,विचित्र बैचेनियों मैं धरती के होटों पर गोधूली का चुम्बन है,उदासी, तुम्हे बड़ी सुकुमारिता से सुलाने के लिए बादलों की तहें लगा कर, तकिया नही बनाता,फिर भी अचरज है कितनी तेजी से उकस आती हो तुम बेल सी लिपटी,जब में समेट लेता हूँ तुम्हे अपने कांटेदार सीने मैं


साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार से सम्मानित १९८६ मैं ,अफ्रीकी कवि वोले सोयिंका की प्रेम कविता का अंश