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तुम छोड़ जाती हो ...सतह पर / वोले शोयिंका
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तुम छोड़ जाती हो अपने नामालूम दबाव ,शांत पोखर की सतह पर नाम मात्र की उड़ान भरते हुए दुबकी श्यामल हवा-जलमयूर के पंख ,प्यार तुम्हारा मानो हवा मैं तैरते महीन जाले , अब सुनो हवा का मर्सिया यह सिखाने की बेला है,और तुम सिखा रही हो बिना पीड़ा के घुलते जाना ,विचित्र बैचेनियों मैं धरती के होटों पर गोधूली का चुम्बन है,उदासी, तुम्हे बड़ी सुकुमारिता से सुलाने के लिए बादलों की तहें लगा कर, तकिया नही बनाता,फिर भी अचरज है कितनी तेजी से उकस आती हो तुम बेल सी लिपटी,जब में समेट लेता हूँ तुम्हे अपने कांटेदार सीने मैं
साहित्य के लिए नोबल पुरूस्कार से सम्मानित १९८६ मैं ,अफ्रीकी कवि वोले सोयिंका की प्रेम कविता का अंश