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माँ के दुख / प्रमोद कुमार शर्मा

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माँ के बहुत सारे दुख हैं
कुछ गिन सकता हूँ मैं
कुछ दस जन्मों तक भी नहीं।
कभी वह जब होती है बहुत उदास
तो लेकर मेरा नाम छोड़ती है ठंडी सांस
और चीखती है इमारतों के साये तले
घुमती गोल-गोल दुनिया को
देखने लगती है एकटक
जैसे-
इसी भीड़ में खो गया हूँ मैं कहीं
मैं भी उसके बहुत से दुखों में से एक हूँ
वह तोड़ती है मेरी रगों में स्मृतियों के पत्थर
ढूंढ कर लाती है उन दिनों के ठिकाने
जिनमें मुझे
सिर्फ उसकी गोद के अलावा
पृथ्वी के किसी भी कोने में
नहीं पड़ता था चैन
शायद तब भी घेरते होंगे दुख उसे
किंतु कोई भी दुख...
बहुत लम्बा नहीं जी पाया उसके भीतर
लेकिन इन दिनों
अपनी पूजा की थाली लेकर
जाती है जब मंदिर वह-
तब उसकी चाल में
लहरा रहा होता है
कुछ ऐसा अनजाना-सा दुख
जैसे मान बैठी हो वह
कि दूर नहीं कर सकता
स्वयं ईश्वर भी जिसे
जबकि ईश्वर स्वयं है माँ!