काम पर कांता / अशोक कुमार पाण्डेय
सुबह पांच बजे…
रात
बस अभी निकली है देहरी से
नींद
गाँव की सीमा तक
विदा करना चाहती है मेहमान को
पर….
साढ़े छह पर आती है राजू की बस !
साढ़े आठ बजे…
सब जा चुके हैं !
काम पर निकलने से पहले ही
दर्द उतरने लगा है नसों में
ये किसकी शक़्ल है आइने में ?
वर्षों हो गए ख़ुद का देखे हुए
अरे….पौने नौ बज गए !
दस बजे…
कौन सी जगह है यह?
बरसों पहले आई थी जहाँ
थोड़े से खुले आसमान की तलाश में
परम्परा के उफनते नालों को लाँघ
और आज तक हूँ अपरिचित !
कसाईघर तक में अधिकार है कोसने का्… सरापने का
पर यहां सिर्फ़ मुस्करा सकती हूँ
तब भी
जब उस टकले अफ़सर की आँखें
गले के नीचे सरक रही होती हैं
या वो कल का छोकरा चपरासी
सहला देता है उँगलियाँ फाईल देते-देते
और तब भी
जब सारी मेहनत बौनी पड़ जाती है
शाम की कॉफ़ी ठुकरा देने पर !
शाम छह बजे…
जहाँ लौट कर जाना है
मेरा अपना स्वर्ग
इंतज़ार में होगा
बेटे का होम-वर्क
जूठे बर्तन / रात का मेनू
और शायद कोई मेहमान भी !
रात ग्यारह बजे…
सुबह नसों में उतरा दर्द
पूरे बदन में फैल चुका है
नींद अपने पूरे आवेग से
दे रही है दस्तक
अचानक क़रीब आ गए हैं
सुबह से नाराज़ पति
साँप की तरह रेंगता है
ज़िस्म पर उनका हाथ
आश्चर्य होता है
कभी स्वर्गिक लगा था यह सुख !
नींद में अक्सर…
आज देर से हुई सुबह
नहीं आई राजू की बस
नाश्ता इन्होंने बनाया
देर तक बैठी आईने के सामने
नहीं मुस्कराई दफ़्तर में
मुह नोच लिया उस टकले का
एक झापड़ दिया उस छोकरे को
लौटी तो चमक रहा था घर
चाय दी इन्होने
साथ बैठकर खाए सब
आँखों से पूछा
और…. काग़ज़ पर क़लम से लगे उसके हाथ !