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दे जाना चाहता हूँ तुम्हें / अशोक कुमार पाण्डेय

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अपनी पुत्री की पाँचवीं वर्षगाँठ पर

ऊब और उदासी से भरी इस दुनिया में

पाँच हँसते हुए सालों के लिए
देना तो चाहता था तुम्हें बहुत कुछ

प्रकृति का सारा सौंदर्य
शब्दों का सारा वैभव
और भावों की सारी गहराई

लेकिन कुछ भी नहीं बचा मेरे पास तुम्हें देने के लिए

फूलों के पत्तों तक अब नहीं पहुँचती ओस
और पहुँच भी जाए किसी तरह
बिलकुल नहीं लगती मोतियों-सी

समंदर है तो अभी भी उतने ही
अद्भुत और उद्दाम
पर हर लहर लिख दी गई है किसी और के नाम

पर्दों के विशाल सीने पर
अब कविता नहीं
विज्ञापनों के जिंगल सजे हैं

खेतों में अब नहीं उगते स्वप्न
और न बंदूकें ...
बस बिखरी हैं यहाँ-वहाँ
नीली पड़ चुकीं लाशें

सच मानो
इस सपनीले बाज़ार में
नहीं बचा कोई दृश्य इतना मनोहारी
जिसे दे सकूँ तुम्हारी मासूम आँखों को
नहीं बचा कोई भी स्पर्श इतना पवित्र
जिसे दे सकूँ तुम्हें पहचान की तरह

बस,
समझौतों और समर्पण के इस अँधेरे समय में
जितना भी बचा है सँघर्षों का उजाला
समेटकर भर लेना चाहता हूँ अपनी कविता में
और दे जाना चाहता हूँ तुम्हें उम्मीद की तरह
जिसकी शक़्ल
मुझे बिलकुल तुम्हारी आँखों-सी लगती है