भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जांता / कमलेश्वर साहू

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:39, 26 अप्रैल 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कमलेश्वर साहू |संग्रह=किताब से निक...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तब चक्की नहीं थी
जांता था
जैसे मिक्सर ग्राइन्डर से पहले
सिलबट्टा
तब हर घर में
कोई न कोई कोना
होता था सुरक्षित
इस जांते के लिये
तब बहुएं
इतनी नाजुक नहीं होती थी
तब उनका सौन्दर्य
सौन्दर्य प्रसाधनों के इस्तेमाल से नहीं
श्रम से निखरता था।
रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती थी उनकी दिनचर्या
और शुरूआत
जांता से
जब तक जागते घर भर के लोग
पीस चुकी होती
पूरे परिवार की रोटी के लिये आटा
उनके बच्चों की आधी नींद
बिस्तर में पूरी होती
और आधी
गेहूं पीस रही मां की
फैली हुई टांग पर सिर रखकर
और सुलाता
जांता चलने का संगीत
तब आटा पालीपैक में नहीं मिलता था
तब अपने आटे को शुद्ध
व पौष्टिक बताने वालों की
होड़ न थी
तब मुनाफा कमाने के तरीके न थे-
तब जांता था
चक्की नहीं !