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बलात्कार कथा का अंत / कमलेश्वर साहू

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कहीं ऐसा तो नहीं
जो बच्चे पल रहे हैं हमारे घरों में
भविष्य की अपराध कथाओं के नायक हैं
‘पूजा’ को खोकर
कुछ सीखते हम
तो भविष्य में बच जातीं
हमारी मासूम और नाबालिग बेटियां
बलात्कार व हत्या का शिकार होने से
सीखना हमारे स्वभाव के विपरीत है
हम संवेदनहीन समाज के
बेजान पूर्जे में बदल चुके हैं
पूर्जे सीखा नहीं करते
हमारा गुस्सा
सोडे की बोतल में भरा हुआ है
हमारी चिंता
चाय की प्याली में
हमारा आक्रोश
हमारे घर के सामने की
नाली से होकर
निकल जाता है शहर से बाहर
हम उस बलात्कार कथा
(दरअसल ‘घटना’) का अंत देखकर प्रसन्न हैं
जिसका शिकार ‘पूजा’ नाम की मासूम बच्ची हुई थी
जो जानती तक नहीं थी
बलात्कार क्या है
और जो बलात्कार का
अर्थ जानने के लिये
जिन्दा भी नहीं बची
बलात्कार का शिकार होने के बाद
इस बलात्कार कथा का अंत भी
उन तमाम बलात्कार कथाओं के समान ही हुआ
जिनमें अपराध साबित होने पर
अपराधियों को
भेज दिया जाता है जेल
18-20 की उम्र के
‘पूजा’ के बलात्कारियों को
यानी जसवंत, मोहित, ओमप्रकाश
दिलीप ताड़ी और रवीन्द्र को भी
भेज दिया गया सलाखों के पीछे
जहां से न वर्तमान दिखाई देता है
न भविष्य
और इस तरह हो गया अंत
बलात्कार की एक हृदयविदारक घटना का
‘पूजा’ की नुची-खुंची लाश देखकर
भड़का हुआ जन आक्रोश अब
हो चुका ठंडा
दिनचर्या भी सामान्य
पूजा के पिता निभाने लगे हैं
अपना पिता धर्म
दूसरे बच्चों की परवरिश की चिंता से घिरे
जाने लगे हैं नौकरी पर
माँ की आंखों में
उमड़ आते हैं कभी कभी आंसू
पूजा को याद कर
भाईयों का पीछ कर लेती हैं
कभी कभार
पूजा की दर्दभरी चीखें
और वे नींद में चौंककर
उठ बैठते हैं
जिस बलात्कार कथा का अंत देखकर
प्रसन्न हैं आप
हैं निश्चिंत
कि पकड़े गये अपराधी
और सजा भी हो गई उन्हें
हमें देखना चाहिये उसका आरम्भ
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि ‘पूजा’ की चीख
हमारे कानों तक पहुंचती तो है
मगर हमें बेचैन नहीं करती
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि हम इस घटना के बाद भी
आश्वस्त हैं
कि भविष्य में बलात्कार का शिकार होने वाली लड़की
हमारी बेटी नहीं होगी
निश्चिंत हैं कि
हमारे बेटे नहीं करेंगे
बलात्कार व हत्या जैसे
जघन्य अपराध
भविष्य में जो भी होगा
हमारे साथ नहीं होगा
भविष्य में जो भी करेंगे
हमारे बच्चे नहीं करेंगे
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि हम अपने आसपास फैले
अंधेरे के प्रति फिर भी आश्वस्त हैं
कि तमाम किस्म की बुरी चीजें
बुरे विचार
बुरे इरादे सांस नहीं ले रहे हैं
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि जिस शराब-सिगरेट-गांजा
नशे के अन्य तमाम साधनों से
बरसता है सरकारी खजाने में पैसा
वह समाज को इतनी तेजी से
खोखला, हृदयहीन, अमानवीय
और क्रूर बना रहा है
जिसकी कीमत
सरकार या सत्ता नहीं
जनता चुका रही है
समाज चुका रहा है
विकास व समाज सुधार के
तमाम आंकड़ों का ग्राफ
गिरता जा रहा है तेजी से
एक खूबसूरत धोखा
व सुनहरे रंग का पर्दा है
जो हमें यह सब देखने से
रोक रहा है
या देखकर भी
अनदेखा करना सीखा रहा है
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि उपलब्ध मनोंरंजन के साधनों में
बलात्कार व हत्या की
जिन कथाओं को देखते हैं हम
उन कथाओं को
महज कथा
या कल्पना मानकर भ्ूाल जाते हैं
यथार्थ मानने से कतराते हैं
जिसकी संगीतमय प्रस्तुति से मुग्ध
हम भूल जाते हैं
कि यह घटना
हमारे आसपास भी घट सकती है
सेटेलाइट के माध्यम से
टी.वी. और उसके चैनलों के जरिये
समाज में घोला जा रहा है जहर
न बच्चों को
कोई चेतावनी मिल रही है
न अभिभावकों को कोई सीख
चिंता तो मानो दूर ही है कोसो
निश्चिंत हैं सभी
इस कथा का आरंम्भ यह है
कि लोग मानने लगे हैं
कि ये समस्याएं
हमारे हल करने के लिए नहीं हैं
इन समस्याओं का समधान लेकर
आयेगा कोई नायक
कोई अवतार
कोई ईश्वर
मित्रो
इस कथा का आरंम्भ
बहुत वीभत्स, घिनौना और हृदयविदारक है
इस कथा के आरम्भ के जिम्मेदार
हम हैं
हम ही हैं कहीं न कहीं ज्यादा
यह घटना
ये साबित और आगाह करती है
कि हमारे घरों में
हमारे परिवार व देश में
बेहतर भविष्य के रूप में
पल रहे हैं जो बच्चे
दरअसल वे ही
इन अपराध कथाओं के
भावी नायक हो सकते हैं
हो सकते हैं असली नायक !