फूली फिरति ग्वालि मन मैं री / सूरदास
फूली फिरति ग्वालि मन मैं री ।
पूछति सखी परस्पर बातैं, पायौ पर्यौ कछू कहुँ तैं री ?
पुलकित रोम-रोम, गदगद, मुख बानी कहत न आवै ।
ऐसौ कहा आहि सो सखि री, हम कौं क्यौं न सुनावै ॥
तन न्यारौ, जिय एक हमारौ, हम तुम एकै रूप ।
सूरदास कहै ग्वालि सखिनि सौं, देख्यौ रूप अनूप ॥
भावार्थ :-- वह गोपी अपने मनमें प्रफुल्लित हुई घूम रही है । सखियाँ उससे आपसमेंयह बात पूछती हैं, `तूने क्या कहीं कुछ पड़ा माल पा लिया है ? तेरा रोम रोम पुलकित है, कण्ठ गद्गद हो रहा है, जिसके कारण मुखसे बोला नहीं जाता ऐसा क्या है (जिससेतू इतनी प्रसन्न है)? अरी सखी; परंतु प्राण तो एक ही है, हम-तुम तो एक ही हैं (फिरहमसे क्यों छिपाती हो)? सूरदासजी कहते हैं कि तब उस गोपी ने सखियों से कहा-`मैने एक अनुपम रूप देखा है ।'