भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सितम्बर 1903 / कंस्तांतिन कवाफ़ी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:01, 11 मई 2012 का अवतरण ('{{KKRachna |रचनाकार=कंस्तांतिन कवाफ़ी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अब मुझे ख़ुद को धोखा देने दो कम-अज़-कम
भ्रमित मैं महसूस कर सकूँ जीवन का ख़ालीपन
जब इतनी पास आया हूँ मैं इतनी बार
कमज़ोर और कायर हुआ हूँ कितनी बार
तो अब भला होंठ क्यों बन्द रखूँ मैं
जब मेरे भीतर रुदन किया है जीवन ने
औ' पहन लिए हैं शोकवस्त्र मेरे मन ने?
इतनी बार इतना पास आने के लिए
उन संवेदी आँखों, उन होठों को और
उस जिस्म की नाज़ुकता को पाने के लिए
सपना देखा करता था, करता था आशा
प्यार करता था उसे मैं बेतहाशा
उसी प्यार में डूब जाने के लिए
अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय