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उदारीकरण / बुद्धिनाथ मिश्र

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काट लेना पेड़ बरगद का ख़ुशी से

नाश या निर्माण कर, अधिकार तेरा ।

तू चला बेशक कुल्हाड़ी, किन्तु पहले

पाखियों को ढूंढ़ने तो दे बसेरा ।


है नशे में धुत्त, न जानेगा कभी तू

यह अहं तलवार का कितना बुरा है

तू न संगत में रहा कवि की, इसी से

यार, तेरा लफ़्ज इतना ख़ुरदुरा है


रात के अंतिम पहर तक जागता जो

सांझ ही उस कौम का होता सबेरा ।


देख तूने भी लिया है बाज होकर

बाज होना : काटना ख़ुद को अकेले ।

अब जरा मेरी तरह तू बन कबूतर

और फिर तू झेल दुनिया के झमेले


इक गुटरगूँ प्यार का तू बोल प्यारे

मुस्करा कर काट दे गम का अंधेरा ।


जानता मैं भी कि चैती के दिनों में

तोड़ देना बांध को कितना सरल है

किन्तु जब बहने लगेंगे बाढ़ में घर

तब समझना यह नदी कितनी प्रबल है ।


रंग भरना सीख पहले ज़िन्दगी से

तब कहीं जाकर कभी बनना चितेरा ।

(रचनाकाल : 27.05.2000)