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तुम जो हासिये पर / गिरीष बिल्लोरे 'मुकुल'
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तुम जो हासिये पर
रखती हो अपने सपने
तुम जो रो रो कर
सूनी रातों में
यादों के तकिया लगाकर..
भिगो देतीं हो तकिया
फ़िर इस डर से कि
बेटी पूछेगी सफ़ेद तकिये पर
खारे आंसुओं के निशान देख -"मां, आज़ फ़िर तुम..गलत बात "
तुम जो उठ उठ कर
आज़ भी इंतज़ार करती हो !!
सुनहरी यादों के उन पलों को..!
मैं कब से
हाथों में संजोए बैठा हूं !
बस एक बार देख लो
तुम्हारे ही पल हैं न ये पल ?
जो तुमसे छिटक कर छले गये थे
हां सुनहरी यादों वाले !!