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ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया / सूरदास

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राग कल्याण

ये दोऊ मेरे गाइ-चरैया ।
मोल बिसाहि लियौ मैं तुम कौं, जब दोउ रहे नन्हैया ॥
तुम सौं टहल करावति निसि-दिन, और न टहल करैया ।
यह सुनि स्याम हँसे कहि दाऊ, झूठ कहति है मैया ॥
जानि परत नहिं साँच झुठाई, चारत धेनु झुरैया ।
सूरदास जसुदा मैं चेरी कहि-कहि लेति बलैया ॥

भावार्थ :-- (मैया यशोदा विनोद में कहती हैं -)` दोनों मेरी गायें चराने वाले हैं । तुम दोनों जब बहुत छोटे थे, तभी मैंने तुमको दाम देकर खरीद लिया था । इसीलिये तो तुम दोनों से रात-दिन सेवा कराती हूँ, मेरे यहाँ दूसरा कोई सेवा करनेवाला है कहाँ।' यह सुनकर श्यामसुन्दर यह कहते हुए हँस पड़े -` दाऊ दादा! मैया झूठ बोल रही है । सूरदासजी कहते हैं, यशोदाजी बोलीं -सच और झूठ ही (तुम्हें) समझ नहीं पड़ती; देखो तो गायें चरवाते- चरवाते तुम दोनों को मैंने सुखा डाला; (किंतु सच तो यह है कि) मैं ही तुम्हारी सेविका हूँ । यह कह-कहकर बलैया लेती हैं ।