भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जूते / अशोक वाजपेयी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:03, 24 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक वाजपेयी }} {{KKCatKavita}} <poem> जूते वहीं ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जूते वहीं थे
उनमें पैर नहीं थे
बीच-बीच में उनमें फफूंद लग जाता था
क्योंकि कोई पहनता नहीं था
निरुपयोग से वे कुछ सख़्त भी पड़ गए थे,
उनके तलों में धूल या कीचड़ नहीं लगा था
उन्हें कोई हटाता नहीं था
क्योंकि वे दिवंगत पिता के थे
फिर एक दिन वो बिला गए,
शायद अँधेरे में मौक़ा पाकर
वे ख़ुद ही अंत की ओर चले गए