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कि / मनोज कुमार झा
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तो ठीक है पुत्र
चलो काट देते हैं इस वृक्ष को
कि अब तो तुम्हें ही रहना यहाँ
कि इस पर सुस्ताते पक्षियों के पंख झरते हैं
घुड़साल की छत पर
कि मैं कहीं और किसी वन में ढ़ूँढ़ लूँगा
इसका समगोत्र
कि इस वृक्ष के साथ रहते-रहते मैंने भी
सीख लिया है कंधों पे कोयलों को बैठाना
किन्तु उतरो घोड़े से धरती पर तो एक बात रखूँ
कि पता नहीं तुम सुन रहे कि नहीं
कि घोड़े तो दौड़ते-दौड़ते थककर सो लेते खड़े-खड़े घुड़सवार नहीं
कि कभी-कभी आदमी चाहता है मात्र एक चटाई और अश्वत्थामा माँगता मृत्यु
कि कभी-कभी कुशल धावकों को भी
कठिन हो जाती फेफड़े भर हवा