भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
शाप / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:02, 25 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनोज कुमार झा }} {{KKCatKavita}} <poem> जो पाँव क...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जो पाँव कट जाते हैं वे भी शामिल रहते हैं यात्रा में,
कट गए हिस्सों से देखो तो दुनिया और साफ़ दिखती है
नक़्शों की लकीरें और गहरी ।
दर्शनियाँ जितने आते हैं मरियल या मोटाया हुआ
पुजारी तो बस उन्हें प्रसाद देता है
किसी किसी को ही पहचानता जिससे रिश्ते लेन-देन के,
मगर प्रवेशद्वार पर बैठा भिखारी जानता है सबकी ख़ूबी, सबके ऐब ।
प्रार्थना करो, यह शाप न मिले कि
सारे अंग साबूत
मगर जब जल में उतरो तो लगे नहा लिया बहुत देर
और शरीर को अज्ञात ही रह जाए जल का स्पर्श