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करे क्या आदमी / पुरुषोत्तम प्रतीक

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रोटी उधार की कपड़े उधार के
हम ज़िन्दगी इसे कैसे पुकारते

पहले रहन रखी
है साँस-साँस तो
अब काम कर रहे
कर्ज़ा खलास हो

कविता बहार की मुखड़े मज़ार के
हम बन्दगी इसे कैसे पुकारते

हालात जज़्ब हों
करे क्या आदमी
हर ज़ख़्म शब्द है
कहे क्या आदमी

चर्चा सुधार की दुखड़े निहार के
हम आदमी इसे कैसे पुकारते

रचनाकाल : 16 फ़रवरी 1978