कलाकार की शून्यता / प्रांजल धर
विघटन की कष्टमय प्रक्रिया,
आघात देने वाले सहज प्रतीक
हवा साँस में ली, हवा में साँस ली,
तब गाकर उभरी
कलाकार मक़बूल के भीतर पसरी शून्यता,
व्यक्त न कर पाती कोई ज्यामितिक आकृति जिसे
छोटा पड़ जाता हर कैनवास,
हर रंग साबित होता फीका
और नाप न पाता कोई भी दर्ज़ी
जिसके 'बेतुके' आकार को, व्योम से विस्तार को
सांस्कृतिक निरक्षरता कौंध जाती
कला-मर्मज्ञों के चेहरों पर
मानो वक्त की आधी सड़ी पीठ पर
मरा हुआ एक कबूतर बैठा हो ।
...और बगलें झाँकते मर्मज्ञ-जन,
कुछ और न बन पाने की
ठोस वज़ह के चलते बने,
बनते गए कला-पारखी, धीमे-धीमे...।
कलाकार को मानसिक बीमारी है
इसीलिए भरसक कोशिश ज़ारी है उसकी,
शून्यता उघाड़ने की,
रेंगती रहती उँगलियाँ
आड़ी-तिरछी, गोल-गोल
शून्य की उलझी-चिपकी परतों को खोल-खोल ।
पर न उभर पाते
'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता...' के द्वन्द्व ।
फिर नाकामयाबी !
फिर चला गया मन !!
दुर्बलता के रसातल में !!!
क्यों चला गया ? वह भी फिर से !
चिंघाड़ते हाथी दौड़ पड़ते
घोड़ों के उसके चित्रों पर,
मन में खिली आशा की फ़सलों पर
जाग जातीं स्त्री-दमन की
ऐतिहासिक श्रृंखलाएँ,
न जाने कितनी
उल्टी-सीधी, भूली-बिसरी कथाएँ ।
उभरता एक घोड़ा भी
विचारों की तख़्ती पर
जो अपने ही मेहनतकश वैभव के
बोझ तले दबा है,
बेतुका है चेहरा उसका और चाल बोझिल-सी
धीमी, मन्द, थकी और निरुपाय !
उसे हाँकने वाली तेज़-रफ़्तार पीढ़ी में
कलियों का अर्थ फूल, फूल का पका फल
फलों का वृक्ष और वृक्षों का बीज लगाया जाता है
कुछ-कुछ बीमा कम्पनियों-सा
गणित करतीं जो मौत के मुनाफ़े का
ज़िन्दगी बची रहने के बावजूद ।
कलाकार की दिमाग़ी गलियों में
बन्द पड़ी हैं स्ट्रीटलाइटें, ख़राब हैं शायद ।
और टूटन !
लौटती हुई बाढ़ से आक्रान्त किसी बच्चे-सी
बह गया हो भाई जिसका पिछली ही किसी बाढ़ में
चेहरे पर एक लोकतांत्रिक भय,
और लोहे की काल्पनिक एक छड़ हाथों में
पीटता है जिससे वह
बुद्धि के शीतोष्ण मैदान में उगी
परजीवी घासों को, क्रीत विश्वासों को ।
सुबह तब्दील हो जाता है
एक उभयलिंगी केंचुए में
अपार पुंसत्व का स्वामी वह कलाकार।
रेंगकर सुरंग खोदता, न जाने क्या खोजता
मेज़ पर जल रही मद्धम रोशनी में
बिखरकर गिर पड़ती क़िताबों की गड्डी
ढहे हुए सोवियत संघ-सी ।
बन्द सभी दरख़्त, ख़ामोश हैं कोयलें
कौए बदहवास, रो रही गौरैया
घबराए पक्षियों की निस्तब्धता पसर जाती
लौटी पाती में छिपी
बासी वेदना की ताज़ा लकीरों-सी।
उलट जाती दिशा जिसमें शब्दों के अर्थों की !
चटाई में लिपटा खड़ा है, घर के सीलन भरे
गहरे तहख़ाने में
वामपन्थी स्टण्ट। दीमकों से घिरा हुआ ।
घर की छत शोभायमान है
प्लास्टिक की 'ग्लोबलाइज्ड' पानी-टंकी से ।
निहारता है कलाकार
पंखुड़ियाँ बिखरी हैं फूलों की,
कुछ असमय तोड़ी कलियाँ भी
टंकी के आसपास ।
यह मकबूल का मानसिक जल-प्लवन है...
उठता है, जागता है, दौड़ता है, भागता है
कूदता है, फाँदता है, हारता है, मारता है
और तराजू बन जाता उसका बेचैन मन
इस पलड़े में क्षोभ, पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़
और सहारों की कमी का ज़ोरदार खटका उस ओर
पट्टी बँधी की बँधी हुई न्यायदेवी की आँखों पर !
मज़ाक लगता सम्पादकीय, ख़बरें विज्ञापन
धन के ऊँचे-ऊँचे ढेरों पर बैठे कारनामों के !
दिमाग़ी गलियाँ और भी सँकरी हो जातीं
गिर पड़ते स्ट्रीटलाइटों के मोटे-मोटे लौह-स्तम्भ
और नामुम्किन हो जाती अभिव्यक्ति शून्यता की,
शून्य हो जाता कलाकार मकबूल।
स्वयं।