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सदियों से इंतजार करती औरत / राजेन्द्र सारथी

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सदियों से दरवाजे पर खड़ी औरत
पलक पांवड़े बिछाए
कर रही है पति का इंतजार।

परदेश गए पति की दीर्घायु के लिए
रख रही है उपवास
मान रही है मन्नतें।

सुबह से शाम तक
डूबी रहती है वह घर के कामकाज में
झाड़ती है घर की धूल और जाले
मूंदती है अभावों की दरारें
बच्चों को तांसते-पुचकारते हुए
बिरहिन खोई रहती है मीठे खयालों में।

अर्से से चिट्ठी-पत्री और खर्चा-पानी न आ पाने को
मानती है पति की कोई मजबूरी
या डाक व्यवस्था में आया अवरोध
कल्पना भी नहीं कर पाती वह
अपने पति के भेड़िया हो जाने की।

जब उसे मालूम होता है
सौतन ने भरमा लिया है उसके पति को
तो वह पति की नहीं
सौतन के मरने की करती है कामना
मानने लगती है इसे भाग्य का दोष
या अपनी तपस्या का खोट
मेहनत मजदूरी का मोर्चा संभाल
मन्नतों और उपासना के साथ
नये सिरे से फिर करने लगती है पति का इंतजार।

औरत को पालतूपन की इस मानसिकता से बाहर आना चाहिए
साक्षरता का दामन थाम
अपनी दशा-दिशा खुद तय करनी चाहिए
यह तभी संभव है बंधु,
जब मेराऔर तुम्हारा अहं उसके आड़े न खड़ा हो
बल्कि उसका सहयोगी बने
क्या तुम तैयार हो?