भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इल्तज़ा / रश्मि प्रभा

Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:04, 30 मई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रश्मि प्रभा |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> ‘घ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘घर’ एक विस्तृत शब्द है,
जहां रिश्तों के बीज पड़ते हैं !
’प्यार’ के ढाई अक्षर को जोड़ने का सलीका
सिखाया जाता है,
विनम्र मर्यादाओं की रेखाएं खींची जाती हैं!
घर के प्रवेश-द्वार पर ’विंड शाइम’ क्यूँ लगाते हैं?
निःसंदेह, जलतरंग - सी मीठी ध्वनि से
स्वागत द्वार खोलने के लिए।
’कड़वे बोल’ ना घर की शान होते हैं,
ना ही किसी की ‘जीत’ बनते हैं

कैक्टस लगा कर कितना लहू लुहान करोगे ?
सोच पर नियंत्रण न रख कर कितनों का अपमान करोगे?
फिर उनकी सर्द आंखो को ईर्ष्या का नाम दोगे?
आँसू कभी ईर्ष्या का सबब नही होते
उसे समझाना भी मुश्किल है अब!
तुम्हारी सारी सोच ज़हरीली हो चुकी है!
पर दोष तुम्हारा नहीं-"धृतराष्ट्र" का है ,
जिसने ‘दुर्योधन’ बनाने मे कोई कसर नही छोड़ी।
यहाँ, एक ‘दुर्योधन’ का होना ही काफी था
जो आज तक हावी है!
ऐसे मे, तुमसे वक़्त की इल्तज़ा है
अब कोई ‘दुर्योधन’ मत बनाना
और आँखो के रहते हुए
’धृतराष्टृ’ की उपाधि मत पाना।