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सूख गयी है झील रसवन्ती: एक / नंद चतुर्वेदी

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सूख गयी है झील रसवन्ती
मिट्टी ही बची है नरम, साँवली, सहस्त्रों दुःख, दरार वाली
अब वे दिन याद आते हैं
इस किनारे से उस किनारे तक अछोर पानी और हवा
धुँध की चादर में लिपटे सज्जनगढ़ के
पुराने महलों से बातें करता ढलता
पश्चिम का वर्षा भीगा सूर्य

नीमज माता के देवरे से ‘धुप्पाड़ा’ करके
दोनों हाथों से बादल हटाता ढलान पर रखे
गीले रपटीले पत्थरों को कूदता
अपने घर आता
नाथू भोपा का छोटा बेटा सोहना

कीकर के सघन पेड़ों पर वर्षा-बूँदें झाड़कर
बैठी है सैलानी चिड़ियायें
कुछ और नीचे आ गये है मेघ
कुछ और गहरी हो गयी हैं
‘टॉपरीवालों’ की चिंतायें

चाचा कागद को गोलियाँ भरकर
बंदूक चलाता है
अमरूद वाले बाग से हजारों तोते
उड़ आते हैं इधर के आसमान में
मचान पर रखा है चाचा का रेडियो
कुणी.....ए खुदाया कुआ-बावड़ी
पणिहारी जी....ए.....लो
मिरगानेनी जी....ए...लो
(किसने खुदाये हैं ये कुआ-बावड़ी
मृगनयनी पनिहारिन)
कितनी दुर तक चली गयी है
ए....लो.....ए.....लो की राग-धुन
उदयपुर के शांत सर्पीले रास्तों पर

झमाझम......झमाझम बरसने लगा है पानी
आर्द्रा नक्षत्र की घटायें फतहसागर के
पश्चिम तट पर इकट्ठी हो गयी हैं।