भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:44, 1 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग गूजरी जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ ।<br> ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग गूजरी

जसोदा ! कान्हहु तैं दधि प्यारौ ।
डारि देहि कर मथत मथानी, तरसत नंद-दुलारी ॥
दूध-दही-मक्खन लै वारौं, जाहि करति तू गारौ ।
कुम्हिलानौ मुख-चंद देखि छबि, कोह न नैकु निवारौ ॥
ब्रह्म, सनक, सिव ध्यान न पावत, सो ब्रज गैयनि चारौ ।
सूर स्याम पर बलि-बलि जैऐ, जीवन-प्रान हमारौ ॥

भावार्थ :-- सूरदास जी कहते हैं (बलराम जी कह रहे हैं -) `यशोदा मैया ! कन्हाई से भी तुझे दही प्यारा है ? दही मथने की मथानी हाथ से रखदे; देख, नन्दनन्दन (छूटने को) तरस रहा है (इसे पहले छोड़ दे )! तू जिस पर गर्व करती है, वह दूध, दही, मक्खन लेकर मैं इस पर न्यौछावर कर दूँ । इसके मलिन हुए चन्द्रमुख की शोभा देखकर अपने क्रोध को कुछ कम नहीं करती ? ब्रह्मा, सनकादि ऋषि तथा (साक्षात) शंकर जी तो जिसे ध्यान में (भी) नहीं पाते, वही व्रज में गायें चराता है । श्यामसुन्दर हमारा जीवन और प्राण है, इस पर तो बार-बार न्योछावर हो जाना चाहिये ।'