भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दादी माँ चिन्ता छोड़ो / नंद चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:51, 4 जून 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंद चतुर्वेदी |संग्रह=जहाँ एक उजाल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


दादी माँ तुम हमेशा चिन्ता करती हो
अपने बेटे, बहुओं, पोते-नातियों की
चिट्ठियों की चिन्ता
बाहर जब कभी होता है
अँधेरा या हवा का शोर
या वह ऋतु आती है
जब अमरूद पकते हैं
और शब्द होता है
बीते हुए खामोश दिनों का

अपनी झुकी हुई झुर्रियों वाली
गरदन पर चादर लपेटे
तब तुम धीमी आग, गर्म रोशनी होती हो

दादी माँ, युधिष्ठिर के लिए दुःखी होना
तुम्हारे महाभारत का हिस्सा है
अब दुर्योधन की पीठ पर
प्रतिष्ठा का कम्पयुटर कारखाना है
गँधारी आँख पर बँधी पट्टी नहीं खोलती
आँख और हाथ के बीच दहशत भरा जंगल है
तुम्हारी आँख के पास दतर होता
तब यमराज तुम से हँस-हँस कर बातें करता
अश्वत्थामा दूध के लिए रो-रो कर मरता रहा
दूध का दुःख उन दिनों भी था
बाबुओं की जंघाएँ तगड़ी, गरदनें पुष्ट थीं
द्रौपदी की पीठ पर
सांसदों की हँसी, धर्म व्यापार था

दादी माँ, अब आग तपने
और भूभल में लाल हुए
शकरकंद खाने की चिन्ता छोड़ो
तुम्हारे नाती-पोते
बबलगम चिगलते
अँगरेजी मदरसों में पढ़ते
बड़े हो रहे हैं।