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मुख छबि देखि हो नँद-घरनि / सूरदास

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मुख छबि देखि हो नँद-घरनि !
सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु-आभा-हरनि ॥
ललित श्रीगोपाल-लोचन लोल आँसू-ढरनि ।
मनहुँ बारिज बिथकि बिभ्रम, परे परबस परनि ॥
कनक मनिमय जटित कुंडल-जोति जगमग करनि ।
मित्र मोचन मनहुँ आए ,तरल गति द्वै तरनि ॥
कुटिल कुंतल, मधुप मिलि मनु कियो चाहत लरनि ।
बदन-कांति बिलोकि सोभा सकै सूर न बरनि ॥

भावार्थ :-- (गोपी कहति है-) नन्दरानी! (अपने लाल के) मुख की शोभा तो देखो, यह तो शरद् की रात्रि के अगणित किरणों वाले चन्द्रमाओं की छटा को भी हरण कर रहा है । श्रीगोपाल के सुन्दर (एवं) चञ्चल नेत्रों से आँसुओं का ढुलकना ऐसा (भला) लगता है मानो कमल (कोश) में क्रीड़ा से अत्यन्त थक कर भौंरे विवस गिरे पड़ते हों । मणिजटित स्वर्णमय कुण्डलों की कान्ति इस प्रकार जगमग कर रही है, जैसे अपने मित्र (कमल) को छुड़ाने के लिये दो चञ्चल गति वाले सूर्य उतर आये हों! घुँघराली अलकें तो ऐसी लगती हैं मानो भ्रमरों का समूह एकत्र होकर युद्ध करना चाहता है ।' सूरदास जी कहते हैं कि यह मुख की कान्ति देखकर (जो कि देखने ही योग्य है) उसकी शोभा का वर्णन मैं नहीं कर पाता ।