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पश्चात सच / पंकज सिंह

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धब्बों भरी एक चीख़

अटकी मिली

मृतक के स्वरयंत्र में

टूटे हुए

शब्दों

में

लिपटी


जो जकड़ा था इर्द-गिर्द उसके

श्लेष्मा की तरह

वह किश्तों में निगला

भय था लगभग प्रस्तरीभूत

जिसने उसके सारे कहे को

नागरिक बनाया था जीवन भर


उसके विराट और

महान

लोकतंत्र की सेवा में

(रचनाकाल : 1967)