हरि सब भाजन फोरि पराने / सूरदास
हरि सब भाजन फोरि पराने ।
हाँक देत पैठे दै पेला, नैकु न मनहिं डराने ॥
सींके छोरि, मारि लरिकन कौं, माखन-दधि सब खाइ ।
भवन मच्यौ दधि-काँदौ, लरिकनि रोवत पाए जाइ ॥
सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तेरौ-सौ कहुँ नाहि ।
हाटनि-बाटनि, गलिनि कहूँ कोउ चलत नहीं, डरपाहिं ॥
रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।
रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ॥
बारे तैं सुत ये ढँग लाए, मनहीं-मनहिं सिहाति ।
सुनै सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥
श्यामसुन्दर ललकारते हुए बलपूर्वक (गोपी के घर में) घुस गये, तनिक भी मन में डरे नहीं छींके खोलकर (उनसे उतारकर) सब दही-मक्खन खाकर उस घर के लड़कों को पीटकर और सब बर्तन फोड़कर भाग गये । गोपी ने जाकर देखा कि घर में दही का कीचड़ हो रहा है, अपने लड़कों को उसने रोते पाया । (अब यशोदा जी के पास जाकर बोली-) `सुनो! सुनो! लड़के तो सभी के हैं किंतु तुम्हारे लड़के जैसे तो कहीं नहीं पाता; सभी उससे डरते हैं । वसन्त-ऋतु आने पर फाग खेलना तो ठीक है, किंतु तुम्हारा कन्हैया तो सब समय होली खेलता, तिरछी पगड़ी बाँधता है और पतली गलियों में (गोपियों को) पकड़कर रोक लेता है। बचपन से ही तुम्हारे पुत्र ने ये ढंग ग्रहण कर रखे हैं । (यह कहती हुई भी वह) मन-ही-मन (श्याम के द्वारा छेड़े जाने के लिये) ललचा रही है । सूरदास जी कहते हैं कि गोपी की बातें सुनकर व्रजरानी संकोच में पड़ गयी हैं और पछतावा कर रही हैं ।