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दस मिनट-1 / राहुल राजेश

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केवल वक्त का अदना सा टुकड़ा भर नहीं था
न ही घड़ी की टिक टिक छह सौ बार

जैसे पूरे हफ्ते में आता था एक बार शनिवार
पूरे दिन पूरे चौबीस घंटे में आता था दस मिनट एक बार

पूरे सोलह घंटों के उनींदे इंतजार से भरा
पूरे सोलह घंटे बाद

यहीं से होती थी मेरे दिन की शुरूआत
यहीं आकर दम तोड़ती थी एक काली लंबी रात

जैसे तेज धूप में निकलने से पहले
कोई गटकता हो भरपेट पानी
लंबे सफर पर चलने से पहले
कोई एकटक देखता हो अपना घर मकान
जैसे बाज़ार में पैर धरने से पहले
कोई गरीब अपनी ज़ेब में सहेजता हो
अपना दीन-ओ-ईमान

वैसे ही मेरे हौसले जिंदगी की जंग में उतरने से पहले
भरते थे अपने फेफड़ों में ताजी हवा इन्हीं दस मिनटों में

इन्हीं दस मिनटों में मैं भरता था
अपनी आँखों में भरपूर रौशनी
कानों में भरपूर संगीत
होठों पर भरपूर मुस्कुराहट
पैरों में भरपूर ताकत
उंगलियों में भरपूर छुअन
हथेलियों में भरपूर गरमाहट
सीने में भरपूर आग

इन्हीं दस मिनटों में मैं जीता था एक पूरी उम्र
इन्हीं दस मिनटों में मैं सहेजता था उम्र भर की चाह

जैसे मंदिर के पट खुलने के इंतजार में बैठा कोई
पट खुलते ही हो जाता है नतमस्तक
इन दस मिनटों में मैं होता था ठीक वैसे ही ध्यानस्थ

इन दस मिनटों में रूकी रहती थी पृथ्वी
झुके रहते थे पेड़
थमी रहती थीं नदियाँ
नत रहते थे पहाड़
नत रहता था आकाश
चुप रहती थीं हवाएँ
चुप रहती थीं दिशाएँ

इन दस मिनटों में मेरे लिए ही होती थीं
दुनिया की तमाम भाषाओं में की गईं प्रार्थनाएँ
इन दस मिनटों में मैं झुका होता था
अपने इष्ट के चरणों में
अपनी आकांक्षाओं के फूल अर्पित करता

ये दस मिनट केवल दस मिनट नहीं थे

इन्हीं दस मिनटों में मैं उतारता था बीते दिन का केंचुल
और पहनता था एक नया दिन
इन्हीं दस मिनटों में मिटती थी रात भर जागी आँखों की
पाषाणी थकान
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