भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:27, 2 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग आसावरी जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग आसावरी

जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन, रोइ गए हरि लोटत री ।
तेल उबटनौं लै आगैं धरि, लालहिं चोटत-पोटत री ॥
मैं बलि जाउँ न्हाउ जनि मोहन, कत रोवत बिनु काजैं री ।
पाछैं धरि राख्यौ छपाइ कै उबटन-तेल-समाजैं री ॥
महरि बहुत बिनती करि राखति, मानत नहीं कन्हैया री ।
सूर स्याम अतिहीं बिरुझाने, सुर-मुनि अंत न पैया री ॥

भावार्थ :-- श्री यशोदा जी जब स्नान कराने को कहा तो श्यामसुन्दर रोने लगे और पृथ्वी पर लोटने लगे । (माता ने) तेल और उबटन लेकर आगे रख लिया और अपने लाल को पुचकारने-दुलारने लगीं । (वे बोलीं) `मोहन! मैं तुम पर बलि जाऊँ, तुम स्नान मत करो, किंतु बिना काम (व्यर्थ) रो क्यों रहे हो ?' (माता ने) उबटन, तेल आदि सामग्री अपने पीछे छिपाकर रख ली । श्रीव्रजरानी अनेक प्राकर से कहकर समझाती हैं, किंतु कन्हाई मानते ही नहीं । सूरदास जी कहते हैं कि जिन का पार देवता और मुनिगण भी नहीं पाते, वे ही श्यामसुन्दर बहुत मचल पड़े हैं ।