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महरि ! तुम मानौ मेरी बात / सूरदास

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राग गौरी


महरि ! तुम मानौ मेरी बात ।
ढूँढ़ि-ढ़ँढ़ि गोरस सब घर कौ, हर्‌यौ तुम्हारैं तात ॥
कैसें कहति लियौ छींके तैं, ग्वाल-कंध दै लात ।
घर नहिं पियत दूध धौरी कौ, कैसैं तेरैं खात ?
असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात ।
ऐसौ नाहिं अचगरौ मेरौ, कहा बनावति बात ॥
का मैं कहौं, कहत सकुचति हौं, कहा दिखाऊँ गात !
हैं गुन बड़े सूर के प्रभु के, ह्याँ लरिका ह्वै जात ॥


( उस गोपी ने आकर कहा-) `व्रजरानी! तुम मेरी बात मानो (उस पर विश्वास करो) तुम्हारे पुत्र ने मेरे घर का सारा गोरस ढूँढ़-ढ़ाँढ़कर चुरा लिया ।' (यशोदा जी ने पूछा) बात तुम कैसे कहती हो कि इसने छींके पर से गोरस ले लिया?' (वह बोली-) `किसी गोपकुमार के कंधे पर पैर रखकर चढ़ गये थे ।' (यशोदा जी बोलीं -)`यह घर पर तो धौरी (पद्मगन्धा) गाय का दूध (भी) नहीं पीता, तुम्हारे यहाँ (का दहीं--मक्खन) कैसे खा जाता है? सबेरे सबेरे यह ढीठ गोपी असम्भव बात कहने आयी है ! तू इतनी बातें क्यों बनाती है? मेरा लड़का इतना ऊधमी नहीं है ।' सूरदास जी कहते हैं - (गोपी ने कहा-) `(अब) मैं क्या कहूँ, कहते हुए संकोच होता है और अपना शरीर कैसे दिखालाऊँ । ये तो लड़के बन जाते हैं, किंतु इनके गुण बहुत बड़े हैं (अनोखे ऊधम ये किया करते हैं ) ।'